लेखनी कहानी -27-Jan-2023
“शायद वे अन्दर सो रहे हैं, क्यों?” इन्द्र ने गुस्से से कहा, “गाँजा पीकर एकदम बेहोश पड़े हैं। चिल्ला-चिल्लाकर मर जाने पर भी न उठेंगे।” उन्होंने फिर हँसकर कहा, “और यही सुयोग पाकर तुम श्रीकान्त को साँप का खिलाना दिखाने चले थे, क्यों न? अच्छा, आओ, मैं पकड़े देती हूँ।”
“तुम मत जाना जीजी, तुम्हें काट खायगा। शाहजी को उठा दो- मैं तुम्हें न जाने दूँगा।” यह कहकर और दोनों हाथ पसारकर वह रास्ता रोककर खड़ा हो गया। उसके इस व्याकुल कण्ठ-स्वर में जो प्रेम प्रकाशित हो उठा, उसे उन्होंने खूब ही अनुभव किया। मुहूर्त-भर के लिए उनकी दोनों ऑंखें छल छला उठीं; किन्तु उन्हें छिपाकर वे हँसकर बोलीं, “अरे पागल, इतना पुण्य तेरी इस जीजी ने नहीं किया। मुझे वह नहीं काटेगा, अभी पकड़े देती हूँ देख...” कहकर बाँस के मंच पर से एक किरोसीन की डिबिया उठाकर और जलाकर वे घर में गयी। एक मिनट-भर में ही साँप को पकड़ लाईं और उसे पिटारी में बन्द कर दिया। इन्द्र ने चट से उनके पैरों पर गिरकर नमस्कार किया और पैरों की धूल सिर पर लगाकर कहा, “जीजी, यदि तुम कहीं मेरी जीजी होतीं!” उन्होंने दाहिना हाथ बढ़ाकर इन्द्र का चिबुक स्पर्श किया और उस अंगुली को चूम लिया। फिर मुँह फेरकर अलक्ष्य में मानो उन्होंने अपनी दोनों ऑंखें पोंछ डालीं।
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सारी घटना सुनते-सुनते इन्द्र की जीजी हठात् दो-एक बार इस तरह सिहर उठीं कि यदि इन्द्र का उस तरफ तनिक भी ध्याकन होता, तो उसे बड़ा आश्चर्य होता। वह तो न देख पाया, परन्तु मैंने देख लिया। वे कुछ देर तक चुपचाप उसकी ओर देखकर स्नेहभरे तिरस्कार से बोलीं, “छि: भइया, ऐसा कार्य अब और कभी मत करना। इन सब भयानक जानवरों से क्या खिलवाड़ किया जाता है? भाग्य से तुम्हारे हाथ की पिटारी के ढक्कन पर ही उसने फन मारा, नहीं तो आज कैसा अनर्थ हो जाता, बोलो तो?”
“मैं क्या ऐसा बेवकूफ हूँ जीजी।” इतना कहकर उसने अपनी धोती का छोर खींचकर कमर में से सूत से बँधी हुई एक सूखी जड़ी दिखाकर कहा, “यह देख जीजी, पूरी सावधानी के साथ बाँध रखी है। यदि यह न होती तो क्या आज वह मुझे काटे बिना छोड़ देता? शाहजी के पास से इसे प्राप्त करने में क्या मुझे कम कष्ट उठाने पड़े हैं? इसके होते हुए तो मुझे कोई भी नहीं काट सकता, और यदि काट भी लेता- तो भी क्या बिगड़ता? शाहजी को तुरंत ही जगाकर उनसे जहर-मोहरा लेकर कटी जगह पर रख देता। अच्छा, जीजी, यह जहर-मोहरा कितनी देर में सब विष खींच लेता है? आधा घण्टे में? एक घण्टे में? नहीं, इतनी देर न लगती होगी, क्यों जीजी?”
जीजी, किन्तु उसी तरह, चुपचाप देखती रहीं। इन्द्र उत्तेजित हो गया था, बोला, “आज दो न जीजी मुझे एक जहर-मोहरा-तुम्हारे पास तो दो-तीन पड़े हैं- कितने दिनों से मैं माँग रहा हूँ।” फिर उत्तर के लिए प्रतीक्षा किये बगैर ही वह क्षुब्ध अभिमान के स्वर में उसी क्षण बोल उठा, “मुझसे तो तुम लोग जो भी कहते हो मैं वही कर देता हूँ- पर तुम लोग मुझे हमेशा झाँसा देकर कहते हो, आज नहीं कल, कल नहीं परसों-यदि नहीं देना है तो साफ क्यों नहीं कह देते? मैं फिर नहीं आऊँगा- जाओ।”
इन्द्र ने लक्ष्य नहीं किया, किन्तु मैंने जीजी की तरफ देखते हुए खूब अनुभव किया कि उनका मुख, किसी असीम व्यथा और लज्जा के कारण, मानो एकदम काला हो गया है। किन्तु दूसरे ही क्षण कुछ हँसी का भाव अपने सूखे होठों पर जबर्दस्ती लाकर उन्होंने कहा, “हाँ रे इन्द्र, क्या तू अपनी जीजी के यहाँ सिर्फ साँप के मन्त्र और जहर-मोहरा के लिए ही आया करता है?”
इन्द्र नि:संकोच होकर बोल उठा, “और नहीं तो क्या!” फिर निद्रित शाहजी की ओर तिरछी नजर से देखकर बोला, “किन्तु वह मुझे हमेशा झाँसा ही देते रहते हैं- इस तिथि को नहीं, उस तिथि को नहीं-केवल वह एक झाड़ने का मन्त्र दिया था, बस और कुछ देना ही नहीं चाहते। किन्तु, आज मुझे खूब मालूम हो गया है जीजी, कि तुम भी कुछ कम नहीं हो- तुम भी सब जानती हो। अब और उनकी खुशामद नहीं करूँगा जीजी, तुम्हारे पास से ही सब मन्त्र सीख लूँगा।” इतना कहकर उसने मेरी ओर देखा और फिर सहसा एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर शाहजी को लक्ष्य करके उनके प्रति आदर का भाव प्रकट करते हुए कहा, “शाहजी गाँजा-वाँजा जरूर पीते हैं श्रीकान्त, किन्तु तीन दिन के मरे हुए मुर्दे को आधा घण्टे के भीतर ही उठाकर खड़ा कर सकते हैं- इतने बड़े उस्ताद हैं ये! हाँ जीजी, तुम भी तो मुर्दे को जिला सकती हो?”
जीजी कुछ देर चुपचाप देखती रहीं और फिर एकाएक खिलखिलाकर हँस पड़ीं। वह कितना मधुर हास था! इस तरह मैंने बहुत ही थोड़े लोगों को हँसते देखा है; किन्तु वह हास, मानो निबिड़ मेघों से भरे हुए आकाश की बिजली को चमक की तरह, दूसरे ही क्षण अन्धकार में विलीन हो गया।
किन्तु इन्द्र ने उस तरफ ध्या न ही नहीं दिया, वह एकदम जीजी के गले पड़ गया और बोला, “मैं जानता हूँ कि तुम्हें सब मालूम है; परन्तु मैं कहे देता हूँ कि एक-एक करके तुम्हें अपनी सब विद्याएँ देनी होंगी। जितने दिन जाऊँगा उतने दिन तुम्हारा पूरा गुलाम होकर रहूँगा। तुमने कितने मुर्दे जिलाए हैं जीजी?”
जीजी बोली, “मैं तो मुर्दे जिलाना जानती नहीं, इन्द्रनाथ!”
इन्द्र ने पूछा, “तुम्हें शाहजी ने यह मन्त्र नहीं दिया?” जीजी ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं।” इन्द्र, मिनट-भर तक उनके मुँह की ओर देखते रहने के उपरान्त, स्वयं भी अपना सिर हिलाते-हिलाते बोला, “यह विद्या क्या कोई शीघ्र देना चाहता है जीजी? अच्छा, कौड़ी चलाना तो तुमने निश्चय ही सीख लिया होगा?”
जीजी बोली, “कौड़ी चलाना किसे कहते हैं, सो भी तो मैं नहीं जानती भाई।”
इन्द्र को विश्वास नहीं हुआ। वह बोला, “हुश्, जानती कैसे नहीं! नहीं दूँगी, यही कह दो न!” फिर मेरी ओर देखकर बोला, “कौड़ी चलाना कभी देखा है श्रीकान्त? दो कौड़ियाँ मन्त्र पढ़कर छोड़ दी जाती हैं, वे जहाँ साँप होता है वहाँ जाकर उसके सिर पर जा चिपटती हैं और उसे दस दिन तक के रास्ते से खींच लाकर हाजिर कर देती हैं। ऐसा ही मन्त्र का जोर है! अच्छा जीजी, घर बाँधना, देह-बाँधना, धूल पढ़ना- यह सब तो तुम जानती हो न? यदि जानती न होतीं, तो इस तरह साँप को कैसे पकड़ लेतीं?” इतना कहकर वह जिज्ञासु-दृष्टि से जीजी के मुँह की ओर देखने लगा।
जीजी ने बहुत देर तक सिर झुकाए हुए चुपचाप मन ही मन मानो कुछ सोच लिया और फिर मुँह उठाकर धीरे से कहा, “इन्द्र, तेरी जीजी के पास ये सब विद्याएँ कानी-कौड़ी की भी नहीं हैं किन्तु; क्यों नहीं है, सो यदि तू विश्वास करे भाई, तो आज तेरे आगे सब बातें खोलकर अपनी छाती का बोझ हलका कर डालूँ। बोलो, तुम लोग आज मेरी सब बातों पर विश्वास करोगे?” बोलते-बोलते ही उनके पिछले शब्द एक तरह से कुछ भारी-से हो उठे।
अभी तक मैं प्राय: कुछ भी न बोला था। इस दफे, सबसे आगे जोर से बोल उठा, “मैं तुम्हारी सब बातों पर विश्वास करूँगा जीजी! सब पर- जो तुम कहोगी, सब पर। एक भी बात पर अविश्वास न करूँगा।”
मेरी ओर देखकर वे कुछ हँसीं और बोलीं, “विश्वास क्यों न करोगे भाई, तुम भले घरों के लड़के जो ठहरे! इतर (छोटे) लोग ही अनजान अपरिचित लोगों की बात में सन्देह करते और भय से पीछे हट जाते हैं। सिवाय इसके मैंने तो कभी झूठ बोला नहीं भाई!” इतना कहकर उन्होंने एक दफे सिर हमारी ओर देखकर म्लान भाव-से थोड़ा-सा हँस दिया।
उस समय संध्याे की धुंध दूर होकर, आकाश में चन्द्रमा का उदय हो रहा था और उसकी धुँधली-सी किरण-रेखाएँ, वृक्षों की घनी शाखाओं और पत्तों में से छनकर नीचे के गहरे अन्धकार में पड़ रही थीं।